बी ए - एम ए >> बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्रसरल प्रश्नोत्तर समूह
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बीए सेमेस्टर-3 चित्रकला प्रथम प्रश्नपत्र
अध्याय - 2
पूर्व (प्राच्य) मौर्यकालीन कला
(Pre-Mauryan Art)
प्रश्न- पूर्व मौर्यकालीन कला अवशेष के विषय में आप क्या जानते हैं?
उत्तर -
पूर्व मौर्यकालीन कला (Pre-Mauryan Art) - सिन्धु घाटी सभ्यता का अंत लगभग 1500 ई. पू. में हुआ। यह विदित है कि मौर्य काल का प्रारम्भ चौथी शताब्दी ई. पू.। अतएव दोनों सभ्यताओं के मध्य में लगभग एक हजार वर्षां का अन्तर है। सिन्धु सभ्यता के पश्चात् मौर्य युग में ही कलाकृतियाँ दृष्टव्य है। इस अन्तराल के समय भारतीय कला के कोई महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं मिलते। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं है कि इससे पूर्व की सभी कृतियाँ काष्ठ पर आधारित थीं, इसलिये कालक्रम (समयाचक्र के अनुसार) विनष्ट हो चुकी हैं। किन्तु वैदिक वाङ्मय और संस्कृत साहित्य से यह स्पष्ट है कि वास्तुकला और मूर्तिकला निरन्तर हमारे देश में सदैव अविच्छिन्न रूप से दृष्टव्य रहीं फिर भी प्राचीन युग के कुछ अवशेष प्राप्त हुए हैं जिन्हें मौर्य काल के पूर्व बौद्धकाल तथा नन्दकाल की कला का परिचय मिलता है। इनमें गिरिव्रज के कुछ ध्वंसावशेष, कौशाम्बी का घोषितराम विहार, लौरिया नन्दनगढ़ के श्मशान चैत्य, पिपरहवा स्तूप के अवशेष और उत्तरी भारत से प्राप्त श्री चक्र प्रमुख हैं।
गिरिव्रज के ध्वसावशेष के अन्तर्गत गिरिव्रज महाभारत काल में वृहद्रथ की राजधानी थी जो इन पाँच पहाड़ियों के मध्य सुरक्षित थी वैभारगिरि, विपुलगिरि, वरहागिरि, वृषभगिरि एवं ऋषिगिरि। इस राजधानी के चारों तरफ प्राचीर (दुर्ग) बनी थी, उसके कुछ अवशेष अभी भी मिलते हैं। यह प्राचीर अनगढ़ पत्थर के बड़े-बड़े भारी टुकड़ों को एक-दूसरे पर रखकर बनाया गया जिसकी ऊँचाई 12 से 13 फीट तक और मोटाई 17 से 17.5 फीट तक है। इस दीवार को 'साइक्लोपियन वॉल' कहां गया है। यहाँ पर वैभारगिरि तथा सोणभण्डार गुफायें हैं। सप्तपर्णि गुफा में सात कक्ष हैं। सोणभण्डार गुफा में प्रवेश द्वार पर मेहराब है जिस पर ओपदार (चमकदार) पॉलिश है। गुफाओं को बुद्ध तथा बौद्ध भिक्षु समुदाय के निवास और सभागार हेतु अजातशत्रु ने निर्मित करवाया था।
कौशाम्बी का घोषितराम विहार - कौशाम्बी के उत्खनन से प्राचीन मौर्य युग के बौद्ध विहार घोषितराम के अवशेष प्राप्त होते हैं। चौकोर वास्तु योजना वाले विहार का निर्माण गौतम बुद्ध के आवास के लिए 'घोषित' नामक व्यापारी ने करवाया था। इस विहार में चैत्य भी था। इसके चारों ओर भिक्षुओं के लिए आवास कक्ष थे और सामने स्तम्भों पर आधारित बरामदा बनाया गया था। आंगन में एक ओर चैत्य स्तूप था। चैत्य स्तूप के अन्दर 24.69 x 24.6 मीटर का चौकोर विशाल स्तूप था। ऐसा कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध अनेक बार इस विहार में ठहरे थे। सर्वप्रथम घोषितराम का स्तूप पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में बुद्ध निर्माण के पश्चात् बनाया गया था। दूसरी बार तृतीय शताब्दी ई. पू. में अशोक के समय इस स्तूप में कुछ वृद्धि की गई थी। घोषितराम विहार का अस्तित्व पाँचवीं शातब्दी ई. पू. तक रहा। प्रो. गोवर्द्धनराय शर्मा के अनुसार इसका विनाश 'हूण सरदार तोरमाण' ने छठी शताब्दी ई. पू. में किया था।
महत्वपूर्ण तथ्य
(1) घोषितराम विहार से एक मोहर प्राप्त हुई उस मुहर पर लिखा है, 'कौशाम्ब्यां घोषिताराम महाविहारे भिक्षुसंघस्य'।
(2) एक खण्डित बौद्ध आयागपट्ट प्राप्त है जिसके मध्य में बुद्ध पद (बुद्ध के चरण) व लेख थे। 'भयंतस धरस अन्तेवासिस भिक्षुस फगलस बुधावा से घोषितारामें ने सब बुधांनां पूजाये शिलाकारापिता' अर्थात् पूज्य घर के अन्तेवासी भिक्षु फगल ने घोषिताराम के बुद्ध निवास में सभी बुद्धों की पूजा हेतु यह शिलापट स्थापित करवाया।
शतदल कमल की आकृति वाला एक दीपक भी प्राप्त हुआ है। इस धार्मिक दान को 'शाक्यभिक्षु भद्र धर्म प्रदीप' ने भगवान बुद्ध के लिए घोषिताराम विहार की गंधकुटी में दिया। इससे प्राप्त पुण्य सभी प्राणियों को अनुत्तर ज्ञान प्रदान करें।
बुद्ध की पूजा हेतु घोषितराम ने 'कोहड़ की कन्या नंदयाशा द्वारा अभिलिखित एक स्तम्भ भी अपने मूल स्थान पर गड़ा हुआ पाया गया है।
मौर्य से पूर्व के कुछ नमूने शैशुनाक काल में हमें मूर्तियों के रूप में प्राप्त होते हैं जिनमें विशालकाय मूतियाँ प्राप्त हुई हैं। इन मूर्तियों को मौर्य काल के पूर्व मूर्तियाँ की मानी गई हैं। इनका शारीरिक गठन, वस्त्राभूषण इत्यादि से ज्ञात होता है। शैशुनाक वंश के पश्चात् मगध पर नन्द वंश का प्रबल साम्राज्य स्थापित हुआ परन्तु, यह वंश आगे चलकर अत्यन्त अत्याचारी हुआ जब उसके अत्याचारों की पराकाष्ठा बढ़ने लगी तब चाणक्य की सहायता से चन्द्रगुप्त मौर्य मगध के राजा नन्द को हराकर मगध पर शासनारूढ़ हो गया। यहीं से मौर्य साम्राज्य का प्रथम चरण आरम्भ हुआ माना जाता है। मौर्यकाल आरम्भ होने से पूर्व ही उत्तरी भारत पर यूनानियों ने भी आक्रमण करने प्रारम्भ कर दिये थे।
लौरिया नन्दनगढ़ का श्मशान चैत्य - लौरिया नन्दनगढ बिहार प्रदेश में चम्पारन जिले का एक गाँव है जहाँ पर श्मशान चैत्य के अवशेष तथा अशोक का शिला स्तम्भ प्राप्त हुआ। डॉ. बलाख द्वारा उत्खनन में स्तम्भों पर आधारित एक श्मशान भवन के अवशेष मिले हैं। जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण एक स्वर्णपात्र पर अंकित 'नग्न मातृ देवी' की आकृति है। इस प्रकार के श्मशान चैत्यों का उल्लेख ऋग्वेद में भी वर्णित है जिसके मृतक की रक्षा हेतु पृथ्वी की स्तुति की जाती थी। इस प्रकार लौरिया नन्दनगढ़ का यह श्मशान चैत्य पूर्व मौर्यकालीन वास्तुकला तथा यहाँ मिली पृथ्वी की आकृति तत्कालीन मूर्तिकला के साक्ष्य प्रस्तुत करती है।
श्री चक्र - श्री चक्र उत्तरी भारत में मथुरा, कौशाम्बी, पाटलिपुत्र, तक्षशिला आदि विभिन्न स्थानों से पत्थर की गोल चकरियाँ (श्री चक्र) मिली हैं। अधिकतर 'नग्न मातृदेवी' की आकृति अंकित है। इस आकृति के साथ कुछ सपक्ष पशु एवं ताड़ वृक्षों का अंकन भी दृष्टव्य है। गोल घेरे के किनारें पर विभिन्न ज्यामितीय डिजाइनों के अलंकरण हैं तो कुछ चकरियों के बीच में गोल छेद है। वासुदेवशरण ने इन गोल चकरियों के ऊपर अंकित नारी मूर्ति की तुलना 'श्री मातृदेवी' से की है। यही कारण है कि इन्होंने इन अश्मचक्रों को 'श्री चक्र' कहा है। प्राक् मौर्य युग में निर्मित श्री चक्रों का समय 300 ई. पू. से 6000 ई. पूर्व. माना गया है।
पिपरहवा का स्तूप - पिपरहवा का स्तूप गौतम बुद्ध के अवशेषों पर आठ स्थानों पर बनाये गये थे। कपिलवस्तु, वैशाली, अलकत्प, रामग्राम, वेयदीपपावा, राजगृह और कुशीनगर। इनमें से कपिलवस्तु के बनाये गये स्तूप के भग्नावशेष उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में स्थित 'पिपरहवा' नामक स्थान से प्राप्त हुए हैं। सर्वप्रथम इस स्तूप का उत्खनन डॉ. डब्ल्यू. सी. पेप्पे ने सन् 1897 से 1998 ई. में कराया। यहाँ से एक प्रस्तर पेटिका प्राप्त हुई इसमें चार अस्थि कलशों के साथ सोने तथा बहुमूल्य पत्थरों की अन्य वस्तुएँ प्राप्त हुईं। (स्वास्तिक, नन्दयावर्त, वेजयन्ती प्रतीकों एवं पुष्पों के आकार की) हाथी, मातृदेवी, चिड़िया एवं मनके भी मिले थे। एक ढक्कनदार अस्थि कलश की पिटार पर ब्राह्मी अक्षरों में लेख था "सुक्ति भतिनं स भगिनि कनंस स पुत दलनं इयं सलिल निधने बुध सभगवते साकियनं। इस लेख के आधार पर व्यूहलर तथा रिजडैविड्स ने इस अस्थि कलश में स्वयं बुद्ध की अस्थियाँ मानी थीं। किन्तु फ्लीट महोदय का मानना था कि इसमें बुद्ध के परिजनों की अस्थियाँ थीं। सन् 1971-1973 ई. में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा करवाये गये उत्खनन से डॉ. के. एम. श्रीवास्तव ने इस स्तूप के तीन निर्माण स्तर बताये हैं। इन तीनों निर्माणों के नीचे डॉ. श्रीवास्तव को 7 सेन्टीमीटर व्यास वाला एवं 12 सेन्टीमीटर ऊँचाई वाला ढक्कनदार एक अस्थि कलश मिला। इसमें कुछ जली हुई अस्थियाँ हैं। इस टीले में कुछ मोहरें और सिक्के भी मिले हैं। मोहरों पर कपिलवस्तु नाम अंकित है। इस उत्खनन के बाद विद्वानों द्वारा यह माना जा रहा है कि उत्खनित अस्थि कलश बुद्ध की अस्थियों का है और स्तूप का निचला निर्माण स्तर प्राक् मौर्य काल का है। इसका ऊपरी निर्माण स्तर बाद में मौर्य काल का है। पिपहरवा अभिलेख के मौर्यकालीन सिद्ध हो जाने से यह भी निश्चित हो गया कि भारत में ब्राह्मी लिपि का उद्भव संभवतः मौर्य काल में हुआ था।
प्रागैतिहासिक काल के समाप्त होते ही धातु युग के साथ वैदिक काल का उदय हुआ। दक्षिण भारत में पाषाण काल के पश्चात् लौह युग ही आरम्भ हुआ। परन्तु उत्तरी भारत में ताम्र और सिंध में कांस्य युग के पश्चात् ही सम्पूर्ण भारत में लौह युग आया यद्यपि दक्षिण भारत में बहुत-सी काँसे की बनी सामग्री प्राप्त हुई है। परन्तु यह बाद की है या दूसरे क्षेत्र से आयतित है।
बुद्ध से अशोक तक (500-232 ई.) के समय में अनेक गणतन्त्र राज्यों के इतिहास का परिचय मिलता है। कपिलवस्तु के शाक्य, सुभगिरि के मग्ग, अलकम्प के बुली, केशयुत के कालाम, रामगांव के कोलिय, पावा के मल्ल, कुशीनारा के मल्ल, पिप्पलिवन के मौर्य, मिथिला के विदेह और वैशाली के लिच्छवी गणतन्त्रीय राज्य थे। गौतम बुद्ध का जन्म शाक्यकुल में हुआ था। उनके समय में कौशाम्बी (बस्स), अवन्ति, कोशल तथा मगध शक्ति सम्पन्न राज्य थे।
मगध के राजवंश की स्थापना बृहद्रथ ने की। इस वंश का अंत छठी शताब्दी ई. पू. में हुआ जबकि मगध पर हर्यक वंश का बिम्बसार (543-416 ई.) राज्य का रहा था। हर्यक वंश के पश्चात् मगध पर शिशुनाग वंश का अधिकार हो गया तत्पश्चात् 400 ई. पू. में महापद्म नाम का एक सैनिक मगध के सिंहासन पर नन्दवंश को बैठाने में सफल रहा।
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